सनातन ज्ञान को वैदिक ज्ञान या ईश्वरीय ज्ञान कहा जाता है जो ईश्वर से प्रकट हुआ है। जो व्यक्ति अपने धर्म पर चलता है या कर्तव्यों के समूह का पालन करता है या पालन करने की कोशिश करता है ।
ब्राह्मणों के लिए सनातन ज्ञान को सीखना, फिर उस ज्ञान से समाज का कल्याण करना ही उनका धर्म है। इस धर्म को पूरा करने से उनके स्वयं का और विश्व का कल्याण होता है। अर्थात भगवान् की प्राप्ति होती है। जैसे की नारद, सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार तुलसीदास, सुदामा, गुरु वशिष्ठ, भास्कर, आर्यभट्ट इत्यादि।
सनातन धर्म में धर्म का अर्थ मैंने इतना समझा कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी मानवता के प्रति सभी कर्तव्यों को करने का संकल्प लेता है, और उसे पूरा करने का प्रयत्न करता है। इन सभी कर्तव्यों को प्रेम और निस्वार्थ भाव के साथ पूरा किया जाता है। इन सभी कर्तव्यों के समूह को धर्म या सनातन अर्थात सत्य धर्म कहते है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति का धर्म , उस काल की गति अर्थात उस समय की परिस्थिति के अनुसार बदल सकता है।
ब्राह्मण अर्थात गुरु, अध्यापक-
ब्राह्मणों के लिए सनातन ज्ञान को सीखना, फिर उस ज्ञान से समाज का कल्याण करना ही उनका धर्म है। इस धर्म को पूरा करने से उनके स्वयं का और विश्व का कल्याण होता है। अर्थात भगवान् की प्राप्ति होती है। जैसे की नारद, सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार तुलसीदास, सुदामा, गुरु वशिष्ठ, भास्कर, आर्यभट्ट इत्यादि। समाज में जो व्यक्ति ज्ञान धारण करता है, और अपने ज्ञान से अन्य लोगो को मार्ग दिखाता है, वही ब्राह्मण है। ऐसा व्यक्ति शास्त्रों में भगवान् का सबसे प्रिय कहा गया है। भगवान् ने भी ब्राह्मणो को अपना प्रिय बताया है।
क्षत्रिय अर्थात सैनिक –
तो ऐसे मुख्य रूप से ब्राह्मण और अन्य वर्णों की निस्वार्थ भाव से असत्य एवं अधर्मी से रक्षा करना ही क्षत्रियों का धर्म है। इस धर्म को पूरा करने से उनके स्वयं का कल्याण होता है। अर्थात भगवान् की प्राप्ति, वीरगति की प्राप्ति होती है। जैसे की महाभारत, रामायण, वीर शिवजी, महाराणा प्रताप इत्यादि ।
वैश्य अर्थात व्यापारी या बनिया –
जिस समाज में ब्राह्मण, सत्य और धर्म की रक्षा होती रहे, अगर उस समाज में व्यापारी अपने व्यापार को ईमानदारी से करता है तो उसे भगवान् की प्राप्ति होती है। जैसे की शालिग्राम भगवान्, और सत्यनारायण भगवान् की कहानी।
शूद्र अर्थात नौकर –
और जो समाज का निर्माण करते है, बनाते है, और वे अपने धर्म का पालन करते है तो उन्हें भगवान् की प्राप्ति होती है जैसे क़ि विश्वकर्मा, इत्यादि।
सनातन धर्म में धर्म का अर्थ मैंने इतना समझा कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी मानवता के प्रति सभी कर्तव्यों को करने का संकल्प लेता है, और उसे पूरा करने का प्रयत्न करता है। इन सभी कर्तव्यों को प्रेम और निस्वार्थ भाव के साथ पूरा किया जाता है। इन सभी कर्तव्यों के समूह को धर्म या सनातन अर्थात सत्य धर्म कहते है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति का धर्म , उस काल की गति अर्थात उस समय की परिस्थिति के अनुसार बदल सकता है।
वर्ण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
सनातन धर्म में वर्ण व्यवस्था किसी भी व्यक्ति विशेष के कर्तव्यों के द्वारा पहचान करना था, तथा वे अपने कर्तव्यों को भूले नहीं इसलिए इसका ज्ञान उन्हें स्वयं भी करवाया जाता था।
वर्ण व्यवस्था का अर्थ –
समाज में लोगो के कर्तव्यों को चार समूहों में वांटा गया था या आज भी उसी प्रकार से पहचाने जा सकते है, जैसे –
ब्राह्मण – जो समाज में शिक्षा और अनुसन्धान से सम्बंधित कार्य करते थे जैसे कि गुरु, अध्यापक, वैज्ञानिक, सन्यासी, ऋषि इत्यादि
क्षत्रिय – जो समाज में रक्षा, सुरक्षा से सम्बंधित कार्य करते थे जैसे कि सैनिक, सेनापति, राजा, पुलिस, आर्मी इत्यादि
वैश्य – जो समाज में किसी भी प्रकार का व्यापार करते है वे वैश्य, वनिया, व्यापारी, बिज़नेसमैन इत्यादि कहलाते है।
शूद्र – जो समाज में किसी भी प्रकार की नौकरी करते है उन्हें सूद्र या दास के रूप में पहचाना जाता है।
वर्ण व्यवस्था की आवश्यकता –
यह सनातन धर्म की समाज की सबसे बड़ी विशेषता थी जिसके कारण अधर्मी और विधर्मी सनातन धर्म को तोड़ने में सफल नहीं हो पाते थे इसलिए आज अधर्मी और विधर्मी इसकी वर्ण व्यवस्था को निशाना बनाते है, और सनातन धर्म से लोगो को अन्य धर्म में परिवर्तित करने के लिए लगे रहते है।
** धर्म बदलने से अर्थात यहाँ Religion वाला धर्म नहीं, बल्कि मानव कर्तव्य बदलते है। इन कर्तव्यों का ज्ञान ही धर्म का ज्ञान है, यह धर्म का ज्ञान ही प्रत्येक व्यक्ति को फूंक फूंक कर कदम रखने की सलाह देता है ताकि उस आत्मा का परमात्मा से मिलन हो सके।
ऐसी जानकारियों या Hindi me Advice के लिए Hindi Hai वेबसाइट पर समय समय पर आते रहे।
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