श्रीमद्भागवत गीता की महिमा – श्रीमद्भागवत गीता-माहात्म्य (अथ श्रीमद्धगवद्वीतामाहात्म्यम्) / Geeta majesty
गीताशास्त्रमिदं _ पुण्यं॑ यः पठेत्प्रयतः पुमान्।
विष्णो: पदमवाप्रोति भयशोकादिवर्जित: ॥ १॥
जो मनुष्य शुद्धचित्त होकर प्रेमपूर्वक इस पवित्र गीताशास्त्रका पाठ करता है, वह भय और शोक आदिसे रहित होकर विष्णुधामको प्राप्त कर लेता है॥१॥
गीताध्ययनशीलस्य प्राणायामपरस्य च।
नेव सन्ति हि पापानि पूर्वजन्मकृतानि च॥२॥
जो मनुष्य सदा गीताका पाठ करनेवाला है तथा प्राणायाममें तत्पर रहता है, उसके इस जन्म और पूर्वजन्ममें किये हुए समस्त पाप नि:सन्देह नष्ट हो जाते हैं॥२॥
मलनिर्मोचन॑ पुंसां . जलस्त्रानं 3 दिने . दिने।
सकृद्वीताम्भसि रत्रानं संसारमलनाशनम्॥ ३॥
जलमें प्रतिदिन किया हुआ स्नान मनुष्योंक केवल शारीरिक मलका नाश करता है, परंतु गीताज्ञानरूप जलमें एक बार भी किया हुआ स्नान संसार-मलको नष्ट करनेवाला है॥३॥
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्येः शास्त्रविस्तरे:।
या स्वयं पदानाभस्य मुखपद्दाद्विनि:सृता॥ ४॥
जो साक्षात् कमलनाभ भगवान् विष्णुके मुखकमलसे प्रकट हुई है, उस गीताका ही भलीभाँति गान (अर्थसहित स्वाध्याय) करना चाहिये, अन्य शास्त्रोंके विस्तारसे क्या प्रयोजन है॥४॥
भारतामृतसर्वस्वं विष्णोर्वक्त्राद्विनि:सृतम् ।
गीतागड्रोदक॑ पीत्वा पुनर्ज्म न विद्यते॥५॥
जो महाभारतका अमृतोपम सार है तथा जो भगवान् श्रीकृष्णके मुखसे प्रकट हुआ है, उस गीतारूप गंगाजलको पी लेनेपर पुन: इस संसारमें जन्म नहीं लेना पड़ता॥५॥
सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:ः ।
पार्थों वत्सः सुधीर्भोक्ता दुग्धं॑ गीतामृतं॑ महतू॥ ६॥
सम्पूर्ण उपनिषदें गौ के समान हैं, गोपालनन्दन श्रीकृष्ण दुहनेवाले हैं, अर्जुन बछड़ा है तथा महान् गीतामृत ही उस गौका दुग्ध है और शुद्ध बुद्धिवाला श्रेष्ठ मनुष्य ही इसका भोक्ता है॥६॥
एक शास्त्र देवकीपुत्रगीतमेको देवो देवकीपुत्र एव।
एको मन्त्रस्तस्य नामानि यानि कर्माप्येक॑ तस्य देवस्य सेवा ॥
देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण का कहा हुआ गीताशास्त्र ही एकमात्र उत्तम शास्त्र है, भगवान् देवकीनन्दन ही एकमात्र महान् देवता हैं, उनके जितने भी नाम है वो मंत्र से कम नहीं और ऐसे भगवान् की सेवा से बढ़कर कोई कर्म नहीं॥
ध्यान दे – श्रीकृष्ण भगवान् के गूढ़ रहस्य को जाने के लिए गोपालतापिन्युपनिषत् को अवश्य पढ़े या सुने।
श्रीमद्भगवद्गीता महिमा / श्रीमद भगवत गीता महिमा / Shrimad Bhagavad Gita Mahima
वास्तव में श्रीमद्धगवद्गीता का माहात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करनेके लिये किसी की भी सामर्थ्य नहीं है; क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रन्थ है। इसमें सम्पूर्ण वेदोंका सार-सार संग्रह किया गया है। इसकी संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है कि थोड़ा अभ्यास करने से मनुष्य उसको सहज ही समझ सकता है; परन्तु इसका आशय इतना गम्भीर है कि आजीवन निरन्तर अभ्यास करते रहनेपर भी उसका अन्त नहीं आता। प्रतिदिन नये-नये भाव उत्पन्न होते रहते हैं, इससे यह सदैव नवीन बना रहता है एवं एकाग्रचित्त होकर श्रद्धा-भक्तिसहित विचार करनेसे इसके पद-पदमें परम रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है। भगवान्के गुण, प्रभाव और मर्मका वर्णन जिस प्रकार इस गीताशास्त्रमें किया गया है, वैसा अन्य ग्रन्थोंमें मिलना कठिन है; क्योंकि प्राय: ग्रन्थों में कुछ-न-कुछ सांसारिक विषय मिला रहता है।
भगवान ने “श्रीमद्धगवद्गीता’ रूप एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र कहा है कि जिसमें एक भी शब्द सदुपदेशसे खाली नहीं है। श्रीवेदव्यासजी ने महाभारत में गीताजी का वर्णन करने के उपरान्त कहा है–
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरे: ।
या स्वयं पद्नाभस्य मुखपदाद्विनि:सृता॥
“गीता सुगीता करने योग्य है अर्थात् श्रीगीताजी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भावसहित अन्त:करणमें धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं पद्मनाभ भगवान् श्रीविष्णु के मुखारविन्द से निकली हुई है; अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ?’ स्वयं श्रीभगवान ने भी इसके माहात्म्य का वर्णन किया है (अध्याय 18 श्लोक 68 से 71 तक)।
इस गीता शास्त्र में मनुष्य मात्र का अधिकार है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रम में स्थित हो; परंतु भगवान् में श्रद्धालु और भक्तियुक्त अवश्य होना चाहिये; क्योंकि भगवान् ने अपने भक्तों में ही इसका प्रचार करने के लिये आज्ञा दी है तथा यह भी कहा है कि स्त्री, वैश्य, शुद्र और पाप योनि भी मेरे परायण होकर परमगति को प्राप्त होते हैं (अध्याय 9, श्लोक 32); ।
स्वाभाविक कर्मों द्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त होते हैं (अध्याय 18, श्लोक 46); इन सबपर विचार करनेसे यही ज्ञात होता है कि परमात्मा की प्राप्ति में सभी का अधिकार है।
परन्तु उक्त विषयके मर्मकों न समझने के कारण बहुत-से मनुष्य, जिन्होंने श्रीगीताजी का केवल नाममात्र ही सुना है, कह दिया करते हैं कि गीता तो केवल सन्यासियों के लिये ही है; वे अपने बालकों को भी इसी भय से श्रीगीताजी का अभ्यास नहीं कराते कि गीता के ज्ञान से कदाचित् लड़का घर छोड़कर सन्यासी न हो जाय; किन्तु उनको विचार करना चाहिये कि मोह के कारण क्षात्रधर्म से विमुख होकर भिक्षा के अन्न से निर्वाह करने के लिये तैयार हुए अर्जुन ने जिस परम रहस्यमय गीताके उपदेश से आजीवन गृहस्थ में रहकर अपने कर्तव्य का पालन किया, उस गीताशास्त्र का यह उलटा परिणाम किस प्रकार हो सकता है?
अतएव कल्याण की इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्यागकर अतिशय श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने बालकोंकों अर्थ और भाव के सहित श्रीगीताजी का अध्ययन करायें एवं स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान् के आज्ञानुसार साधन करने में तत्पर हो जाए; क्योंकि अति दुर्लभ मनुष्य-शरीर को प्राप्त होकर अपने अमूल्य समय का एक क्षण भी दुःख मूलक क्षणभंगुर भोगों के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है।
Shrimad Bhagwat Mahapuran का माहात्म्य यहाँ से जाने।