यक्ष युधिष्ठिर संवाद – जब पांडव अपने तेरह-वर्षीय वनवास के दौरान वनों में विचरण कर रहे थे। तब उन्होंने एक बार प्यास बुझाने के लिए पानी की तलाश की। पानी का प्रबंध करने का जिम्मा प्रथमतः सहदेव को सौंप गया। उन्हें पास में एक जलाशय दिखा जिससे पानी लेने वे वहां पहुंचे।
जलाशय के स्वामी अदृश्य यक्ष ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें रोकते हुए पहले कुछ प्रश्नों का उत्तर देने की शर्त रखी। सहदेव उस शर्त और यक्ष को अनदेखा कर जलाशाय से पानी लेने लगे। तब यक्ष ने सहदेव को निर्जीव कर दिया। सहदेव के न लौटने पर क्रमशः नकुल, अर्जुन और फिर भीम ने पानी लाने की जिम्मेदारी उठाई। वे उसी जलाशय पर पहुंचे और यक्ष की शर्तों की अवज्ञा करने के कारण निर्जीव हो गए।
युधिष्ठिर प्रतीक्षा करते करते जब थकने लगे तो सोचा में जाकर देखता हु की हुआ क्या? क्यों मेरे भाई जाते तो है पर लौट कर नहीं आ रहे? और वे स्वयं ही जाने के लिए खड़े हो गए. जलाशय के तट पर जाकर देखा तो सन्न रह गए की उनकी चारो भाई मरे पड़े है. उन्हें इस तरह पड़े देखकर वो शोक से भर गए और शोक सागर में डूबकर सोचने लगे की – ‘इन वीरो को किसने मारा है?’ इनके अंगो में कोई भी शस्त्र प्रहार भी नहीं दिख रहा और यहाँ किसी की पद चिन्ह भी नहीं दिखाई दे रहे, जिसने मेरे भाइयो को मारा है. वो अवश्य ही कोई महान प्राणी होगा या फिर इसमें शकुनि या दुर्योधन की चाल हो सकती है. हो सकता है उन्होंने विषैला जल सरोवर बनवा दिया हो ?. क्यों न में खुद इस सरोवर का जल पीकर देखु तो कुछ पता चले. पर अगर सरोवर विषैला होता तो सरोवर के तट पर जानवर भी पड़े हुए होते। और भाइयो को देखकर लगता है की इन्हे किसी भी प्रकार कोई विकार हुआ है। मरने के वाद भी इनके चेहरे खिले हुए है, मानो मंद मंद मुस्करा रहे हो। इन वीरो का सामना साक्षात यमराज के सिवा किसने किया होगा? चलो देखता हु.
यह सोचकर वो जल में जैसे ही उतरने को तैयार हुए तो उन्हें एक आकाशवाणी सुनाई दी। – ‘ में बगुला हूँ. मेने ही तुम्हारे भाइयो की ये अवस्था की है. क्युकी इस सरोवर का ये नियम है की जो भी जल पियेगा पहले मेरे प्रश्नो के उत्तर देगा। सो हे तात। इसलिए आगे बढ़ने का न सोचे। अन्यथा आपकी अवस्था भी इन चारो के समान होगी। पहले प्रश्नो का उत्तर दे उसके बाद आप जल पि भी सकते है और ले जा भी सकते है।
युधिष्ठर ने कहा – ‘की ये काम किसी पक्षी का नहीं हो सकता। कृपा करके बताये की आप कौन से देवता है और क्या है ?
यक्ष ने कहा – सही पहचाना। में बगुले के रूप में यक्ष हु और ये सरोवर मेरा है. इसलिए जो भी पानी पियेगा पहले मेरे प्रश्नो के उत्तर देगा। आपके महान तेजस्वी भाइयो ने मेरे प्रश्नो को अनसुना किया तो वो इस अवस्था को प्राप्त हुए।
यक्ष की यह अमंगलमयी वात सुनकर वो यक्ष के समीप गए और देखा की – एक विकट नेत्रों वाला विशालकाय यक्ष वृक्ष के ऊपर बैठा है। वह अग्नि के समान तेजस्वी और पर्वत की तरह विशाल है। उसने फिर ललकार कर कहा – हे राजन आपके भाइयो को मेने रोका था पर वो नहीं माने। इसलिए अगर आपको अपना जीवन चाहिए तो जल ग्रहण न करे और यदि जल चाहिए तो मेरे प्रश्नो का उत्तर दे उसके वाद जल पी भी सकते हो और ले जा भी सकते हो।
युदिष्ठिर ने कहा – ‘मैं आपके अधिकार की वस्तु नहीं ले जाना चाहता। कृपा करके आप प्रश्न पूछे में अपनी बुद्धिमता के अनुसार उत्तर दूंगा। यक्ष ने युधिष्ठिर से क्या प्रश्न पूछे थे? जाने –
यक्ष युधिष्ठिर संवाद / यक्ष युधिष्ठिर प्रश्न (Yaksh Yudhishthir Samvad) –
यक्ष ने पूछा – हे राजन मेरा प्रथम प्रश्न ‘सूर्य को कौन उदित करता है ? उसके चारो और कौन चलते है ? उसे अस्त कौन करता है ? और वह किस्मे प्रतिष्ठित है ?
महाराज युदिष्ठिर बोले – ब्रह्म सूर्य को उदित करता है। देवता उसके चारो और चलते है। धर्म उसे अस्त करता है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है।
यक्ष ने पूछा – ‘मनुष्य श्रोत्रिय किससे होता है? महत पद किसके द्वारा प्राप्त करता है? किसके द्वारा वह द्वितीय वान होता है और किससे बुद्दिमान होता है ?
युदिष्ठिर ने कहा – ‘ श्रुति के द्वारा मनुष्य श्रोत्रिय होता है। तप से महापद को प्राप्त करता है। प्रति से द्वितीयवान (ब्रह्मरूप ) होता है और वृद्ध जनो की सेवा से बुद्धिमान बनता है।
यक्ष ने पूछा – ‘ ब्राहम्णो में देवत्व क्या है ? उनमे सत्पुरुषों का सा धर्म क्या है ? मनुष्यता क्या है ? और असत्पुरुषो का सा आचरण क्या है ?
युदिष्ठिर बोले – ‘ वेदो का अध्ययन करने वाला ब्राह्मण या पंडित में ही देवत्व है। तप सत्पुरुषों सा धर्म है मरना मानुषी भाव है और निंदा (बुराई ) करना असत्पुरुषो का सा आचरण है।
यक्ष ने पूछा – ‘ क्षत्रियो में देवत्व क्या है ? उनमे सत्पुरुषों का सा धर्म क्या है ? उनमे मनुष्यता क्या है ? और असत्पुरुषो का सा आचरण क्या है ?
युदिष्ठिर बोले – ‘ वाण विध्या या शस्त्र ज्ञान या चलाना क्षत्रियो में देवत्व है। यज्ञ उनका सत्पुरुषों सा धर्म है, भय मानवी भाव है। और दीनो या असहाय की रक्षा न करना असत्पुरुषो सा आचरण है।
यक्ष ने पूछा – ‘ कौन एक वास्तु यज्ञीय साम है? कौन एक यज्ञीय यजुः है ? कौन एक वस्तु यज्ञ का वरण करती है। और किस एक का यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता है।
युधिष्ठिर बोले- “प्राण एक वस्तु यज्ञीय साम है। मन एक वस्तु यज्ञीय यजुः है। एक मात्र ऋक् ही यज्ञ का वरण करती है और एक मात्र ऋक् का ही यज्ञ अतिक्रमण नहीं करता।”
यक्ष ने पूछा – ‘ आवपन (देवतर्पण) करने वालो के लिए कौन वस्तु श्रेष्ठ है? निवपन ( पितरो का तर्पण ) करने वालो के लिए श्रेष्ठ क्या है ? प्रतिष्ठा चाहने वालो के लिए कौन वस्तु श्रेष्ठ है ? तथा संतान चाहने वालो के लिए क्या श्रेष्ठ है ?
युधिष्ठर बोले – ‘ आवपन करने वालो के लिए वर्षा श्रेष्ठ फल है, निवपन करने वालो के लिए वीज (धन धान्य सम्पति ) श्रेष्ठ है। प्रतिष्ठा चाहने वालो के लिए गौ श्रेष्ठ है और संतान चाहने वालो के लिए पुत्र श्रेष्ठ है।
यक्ष ने पूछा – ऐसा कौन सा पुरुष है जो इन्द्रियों के विषयो को अनुभव करते हुए, श्वास लेते हुए, बुद्धिमान, लोक में सम्मानित और सब प्राणियों का माननीय होकर भी वास्तव में जीवित नहीं है ?
युधिष्ठिर बोले – जो पुरुष, देवता, अतिथि, सेवक, माता-पिता, और आत्मा इन पांचो का पोषण नहीं करता। वह श्वास लेने पर भी जीवित नहीं है।
यक्ष ने पूछा – पृथ्वी से भी भारी क्या है? आकाश से भी ऊंचा क्या है? वायु से भी तेज गति किसकी है? और तिनको से भी अधिक संख्या में क्या है ?
युधिष्ठिर ने कहा – माता भूमि से भारी (बढ़कर) है, पिता आकाश से भी ऊंचा (बढ़कर) है, मन की गति वायु से भी अधिक है और चिंता तिनको से भी बढ़कर है।
यक्ष ने पुछा – सो जाने पर कौन पलक नहीं मूँदता? उत्पन्न होने पर कौन चेष्टा नहीं करता। हृदय किस में नहीं है ? और वेग से बढ़ता है?
युधिष्ठिर ने कहा – मछली सोने पर आँखे नहीं मुंदती। अंडा उत्पन्न होने पर भी चेष्टा नहीं करता। पत्थर में ह्रदय नहीं है और नदी वेग से बढ़ती है।
यक्ष ने पूछा – विदेश जाने वाले का मित्र कौन है? घर में रहने वाले का मित्र कौन है? रोगी का मित्र कौन है? और मृत्यु के समीप पहुंचे पुरुष का मित्र कौन है?
युधिष्ठिर बोले – साथ के यात्री, विदेश जाने वाले के मित्र है। स्त्री घर में रहने वाले की मित्र है। वैध रोगी का मित्र है। और दान मरने वाले व्यक्ति का मित्र है।
यक्ष ने पूछा – समस्त प्राणियों का अतिथि कौन है? सनातन धर्म क्या है? अमृत क्या है ? और सारा जगत क्या है ?
युधिष्ठिर बोले – अग्नि समस्त प्राणियों का अथिति है। गौ का दूध अमृत है। अविनाशी नित्यधर्म कर्म ही सनातन धर्म है। और वायु ये सारा जगत है।
यक्ष ने पूछा – अकेला कौन विचरता (घूमता ) है ? एक बार उत्पन्न होकर पुनः कौन उत्पन्न होता है ? शीत की औषधि क्या है ? और महान आवमन (क्षेत्र) क्या है?
युधिष्ठिर बोले – सूर्य अकेला विचरता है। चन्द्रमा एक बार जन्म लेकर पुनः जन्म लेता है। अग्नि शीत की औषधि है। और पृथ्वी बड़ा भारी क्षेत्र है।
यक्ष ने पूछा – धर्म का मुख्य स्थान क्या है? यज्ञ का मुख्य स्थान क्या है ? स्वर्ग का मुख्य स्थान क्या है और सुख का मुख्य स्थान क्या है ?
युदिष्ठिर ने कहा – धर्म का मुख्य स्थान दक्षता (सूझ-बूझ) है। यश का मुख्य स्थान दान है। स्वर्ग का मुख्य स्थान सत्य है। सुख का मुख्य स्थान शील है।
यक्ष ने पूछा – मनुष्य की आत्मा क्या है ? उसका देवकृत सखा कौन है ? जीवन का सहारा क्या है ? और उसका परम आश्रय क्या है ?
युदिष्ठिर बोले – पुत्र मनुष्य की आत्मा है। स्त्री उसकी देवकृत सखा है। मेघ उपजीवन है और दान परम आश्रय है।
यक्ष ने पूछा – धन्यवाद के योग्य पुरुषो में उत्तम गुण क्या है। धनो में उत्तम धन क्या है। लाभों में प्रधान लाभ क्या है। और सुखो में श्रेष्ठ सुख क्या है।
युदिष्ठिर बोले – पुरुषो में दक्षता ही उत्तम गुण है। जिसके पास शास्त्र ज्ञान है वह धनवान है। निरोगी होना सबसे बड़ा लाभ है। और सुखो में संतोष सबसे श्रेष्ठ सुख है।
यक्ष ने पूछा – लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है? नित्य फल वाला धर्म क्या है? किसको वश में रखने से शोक नहीं होता? और किन के साथ हुयी संधि नष्ट नहीं होती।?
युदिष्ठिर बोले – लोक में दया श्रेष्ठ धर्म है। वेदोक्त धर्म नित्य फल वाला है। मन को वश में रखने से शोक नहीं होता और सत्पुरुषों के साथ हुयी संधि कभी नहीं टूटती है।
यक्ष ने पूछा – किस वस्तु के त्यागने से मनुष्य प्रिय होता है? किसे त्यागने पर शोक नहीं करता? किसे त्यागने पर वह अर्थवान होता है ? और किसे त्यागकर वह सुखी होता है।
युदिष्ठिर ने कहा – मनुष्य प्राण त्यागने के वाद प्रिय होता है। क्रोध को त्यागने पर शोक नहीं करता। काम को त्याग कर अर्थवान होता है और लोभ को त्यागकर सुखी होता है।
यक्ष ने पूछा – ब्राहम्णो को दान क्यों दिया जाता है ? नट और नर्तकों को दान क्यों दिया जाता है? सेवक को दान क्यों दिया जाता है और राजा को दान क्यों दिया जाता है ?
युधिष्ठिर बोले – ब्राहम्णो को दान धर्म के लिए दिया जाता है। नट और नर्तकों को दान यश के लिए देते है। सेवको को उनके भरण और पोषण के लिए दान दिया जाता है और राजा को भय के लिए दान दिया जाता है।
यक्ष ने पूछा – जगत किस वस्तु से ढकता हुआ है? किसके कारण प्रकाशित नहीं होता? मनुष्य मित्रो को क्यों त्याग देता है? और मनुष्य स्वर्ग क्यों नहीं जाता?
युदिष्ठिर बोले – जगत अज्ञान से ढका हुआ है। तमोगुण के कारण वह प्रकाशित नहीं होता है। लोभ के कारण मनुष्य मित्रो को त्याग देता है। और आसक्ति के कारण स्वर्ग नहीं जाता।
यक्ष ने पूछा – पुरुष किस प्रकार मरा हुआ कहा जाता है? राष्ट्र किस प्रकार मरा हुआ कहलाता है? श्राद्ध किस प्रकार मृत हो जाता है ? और यज्ञ कैसे मृत हो जाता है?
युदिष्ठिर बोले – दरिद्र पुरुष मरा हुआ है। बिना राजा का राज्य मरा हुआ है। श्रोत्रिय ब्राह्मण के बिना श्राद्ध मृत हो जाता है। और बिना दान दक्षिणा के यज्ञ मृत हो जाता है।
यक्ष ने पूछा – दिशा क्या है? जल क्या है? अन्न क्या है ? विष किया है? और श्राध्द का समय क्या है? यह बताओ ?
युदिष्ठिर बोले – सत्पुरुष दिशा है। आकाश जल है। गौ अन्न है। कामनाया इच्छा विष है। और ब्राह्मण ही श्राद्ध का समय है।
यक्ष ने पूछा – उत्तम क्षमा क्या है ? लज्जा किसे कहते है ? तप का लक्षण क्या है ? और दम क्या कहलाता है ?
युदिष्ठिर ने कहा – इन्द्रियों को सहना क्षमा है । न करने योग्य काम से दूर रहना लज्जा है। अपने धर्म में रहना तप है। और मन का दमन दम है।
यक्ष ने पूछा- राजन! ज्ञान किसे कहते हैं? शम क्या कहलाता है? उत्तम दया किसका नाम है? और आर्जन (सरलता) किसे कहते हैं?
युधिष्ठिर बोले- परमात्मतत्त्व का यथार्थ बोध ही ज्ञान है, चिता की शान्ति ही शम है, सबके सुख ही इच्छा रखना ही उत्तम दया है और समचित्त होना ही आर्जन (सरलता) है।
यक्ष ने पूछा- मनुष्यों में दुर्जय शत्रु कौन है? अनन्त व्याधि क्या है ? साधु कौन माना जाता है? और असाधु किसे कहते हैं?
युधिष्ठिर बोले- क्रोध दुर्जय शत्रु है, लोभ अनन्त व्याधि है तथा जो समस्त प्राणियों का हित करने वाला हो, वही साधु है और निर्दयी पुरुष को ही असाधु माना गया है।
यक्ष ने पूछा- राजन्! मोह किसे कहते हैं? मान क्या कहलाता है? आलस्य किसे जानना चाहिये? और शोक किसे कहते हैं?
युधिष्ठिर बोले- धर्म मूढ़ता ही मोह है, आत्माभिमान ही मान है, धर्म का पालन न करना आलस्य है और अज्ञान को ही शोक कहते हैं।
यक्ष ने पूछा- ऋषियों ने स्थिरता किसे कहा है? धैर्य क्या कहलाता है? परम स्नान किसे कहते हैं? और दान किसका नाम है?
युधिष्ठिर बोले- अपने धर्म में स्थिर रहना ही स्थिरता है, इन्द्रियनिग्रह धैर्य है, मानसिक मलों का त्याग करना परम स्नान है और प्राणियों की रक्षा करना ही दान है।
यक्ष ने पूछा- किस पुरुष को पण्डित समझना चाहिये? नास्तिक कौन कहलाता हे? मूर्ख कौन है? काम क्या है? तथा मत्सर किसे कहते हैं?
युधिष्ठिर बोले- धर्मज्ञ को पण्डित समझना चाहिये, मूर्ख नास्तिक कहलाता है और नास्तिक मूर्ख है तथा जो जन्म मरण रूप संसार का कारण है, वह वासना काम है और हृदय की जलन ही मत्सर है।
यक्ष ने पूछा- अहंकार किसे कहते हैं? दम्भ क्या कहलाता है? जिसे परम दैवउ कहते हैं, वह क्या है? और पैशुन्य किसका नाम है?
युधिष्ठिर बोले- महान् अज्ञान अहंकार है, अपने को झूठ-मूठ बड़ा धर्मात्मा प्रसिद्ध करना दम्भ है, दान का फल दैव कहलाता है और दूसरो को दोष लगाना पैशुन्य (चुगली) है।
यक्ष ने पूछा- धर्म, अर्थ और काम- ये सब परस्पर विरोधी हैं। इन नित्य -विरुद्ध पुरुषों का एक स्थान पर कैसे संयोग हो सकता है ?
युधिष्ठिर बोले- जब धर्म और भार्या- ये दोनों परस्पर अविरोधी होकर मनुष्य के वश में हो जाते हैं, उस समय धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों तीनों परस्पर विरोधियों का भी एक साथ रहना सहज हो जाता है।
यक्ष ने पूछा- भरतश्रेष्ठ! अक्षय नरक किस पुरुष को प्राप्त होता है , मेरे इस प्रश्न का शीघ्र ही उत्तर दो।
युधिष्ठिर बोले- जो पुरुष भिक्षा माँगने वाले किसी अकिंचन ब्राह्मण को स्वयं बुलोर फिर उसे ‘नाहींद्ध कर देता है, वह अक्षय नरक में जाता है। जो पुरुष वेद, धर्मयशास्त्र, ब्राह्मण, देवता और पितृधर्मों में मिथ्याबुद्धि रखता है, वह अक्षय नरक को प्राप्त होता है। धन पास रहते हुए भी जो लोभवश दान और भोग से रहित है तथा पीछे से यह कह देता है कि मेरे पास कुछ नहीं है, वह अक्षय नरक में जाता है।
यक्ष ने पूछा- राजन! कुल, आचार, स्वाध्याय और शास्त्रश्रवण- इनमें से किसके द्वारा ब्राह्मणत्त्व सिद्ध होता है ? यह बात निश्चय करके बताओ।
युधिष्ठिर बोले- तात यक्ष! सुनो न तो कुल ब्राह्मणत्त्व में कारण है न स्वाध्याय और न शास्त्रश्रवण। ब्राह्मणत्व का हेतु आचार ही है, इसमें संशय नहीं है। इसलिये प्रयत्नपूर्वक सदाचार की ही रक्षा करनी चाहिये। ब्राह्मण को तो उस पर विशेषरूप से दृष्टि रखनी जरूरी है; क्योंकि जिसका सदाचार अक्षुण्ण है, उसका ब्राह्मणत्व भी बना हुआ है और जिसका आचार नष्ट हो गया, वह तो स्वयं भी नष्ट हो गया। पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले तथा शास्त्र का विचार करने वाले- ये सब तो व्यसनी और मूर्ख ही हैं। पण्डित तो वही है, जो अपने (शास्त्रोक्त) कर्तवय का पालन करता है। चारों वेद पढ़ा होने पर भी जो दुराचारी है, वह अधमता में शुद्र से भी बढ़कर है। जो (नित्य) अग्निहोत्र में तत्पर और जितेन्द्रिय है, वही ‘ब्राह्मण’ कहा जाता है।
यक्ष ने पूछा- बताओ; मधुर वचन बोलने वाले को क्या मिलता है? सोत्र विचारकर काम करने वाला क्या पा लेता है? जो बहुत से मित्र बना लेता है, उसे क्या लाभ होता है? और जो धर्मनिष्ठ है, उसे क्या मिलता है?
युधिष्ठिर बोले- मधुर वचन बोलने वाला सबको प्रिय होता है, सोच विचार कर काम करने वाले को अणिकतर सफलता मिलती है एवं जो बहुत से मित्र बना लेता है, वह सुख से रहता है और जो धर्मनिष्ठ है, वह सद्गति पाता है।
यक्ष ने पूछा- सुखी कौन है ? आश्चर्य क्या है? मार्ग क्या है तथा वार्ता क्या है? मरम इन चार प्रश्नों का उत्तर देकर जल पीओ।
युधिष्ठिर बोले- जलचर यक्ष! जिस पुरुष पर ऋण नहीं बचे हुए हैं और जो परदेश में नहीं है, वह भले ही पाँचवें या छठे दिन अपने घर के भीतर साग-भात ही पकाकर खाता हो, तो भी वही सुखी है। संसार से रोज-रोज प्रणी यमलोक में जा रहे हैं; किंतु जो बचे हुए हैं, वे सर्वदा जीते रहने की इच्छा करते हैं; इससे बढ़कर आश्चर्य और क्या होगा? तर्क कहीं सिथत नहीं है, श्रुतियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं, एक ही ऋषि नहीं है कि जिसका मत प्रमाण माना जाय तथा धर्म का तत्त्व गुहा में निहित है अर्थात अत्यन्त गूढ़ है; अतः जिससे महापुरुष जाते रहे हें, वही मार्ग है।इस महामोहरूपी कड़ाहे में भगवान काल समसत प्राणियों को मास और ऋतुरूप करछी से उलट-पलटकर सूर्यरूप अग्नि और रात-दिनरूप ईंधन के द्वारा राँध रहे हैं, यही वार्ता है।
यक्ष ने पूछा- परंतप! तुमने मेरे सब प्रश्नों के उत्तर ठीक-ठीक दे दिये, अब तुम पुरुष की भी व्याख्या कर दो और यह बाताओ कि सबसे बड़ा धनी कौन है ?
युधिष्ठिर बोले- जिस व्यक्ति क पुण्य कर्मों की कीर्ति का शब्द जब तक स्वर्ग और भूमि को स्पर्श करता है, तब तक वह पुरुष कहलाता है। जो मनुष्य प्रिय-अप्रिय, सुख-दुःख और भूत-भविष्यत इन द्वन्द्वों में सम है, वही सबसे बड़ा धनी है। जो भूत, वर्तमान और भविष्य सभी विषयों की ओर से निःस्पृह, शान्तचित्त, सुप्रसन्न और सदा योगयुक्त है, वही सब धनियों का स्वामी है।
यक्ष ने पूछा – कौन व्यक्ति आनंदित या सुखी है?
युधिष्ठिर ने कहा – हे जलचर (जलाशय में निवास करने वाले यक्ष), जो व्यक्ति पांचवें-छठे दिन ही सही, अपने घर में शाक (सब्जी) पकाकर खाता है, जिस पर किसी का ऋण नहीं है और जिसे परदेस में नहीं रहना पड़ता है, वही मुदित-सुखी है । यदि युधिष्ठिर के शाब्दिक उत्तर को महत्त्व न देकर उसके भावार्थ पर ध्यान दें, तो इस कथन का तात्पर्य यही है जो सीमित संसाधनों के साथ अपने परिवार के बीच रहते हुए संतोष कर पाता हो वही वास्तव में सुखी है ।
यक्ष ने पूछा – इस सृष्टि का आश्चर्य क्या है?
युधिष्ठिर ने कहा – यहां इस लोक से जीवधारी प्रतिदिन यमलोक को प्रस्थान करते हैं, यानी एक-एक कर सभी की मृत्यु देखी जाती है । फिर भी जो यहां बचे रह जाते हैं वे सदा के लिए यहीं टिके रहने की आशा करते हैं । इससे बड़ा आश्चर्य भला क्या हो सकता है ? तात्पर्य यह है कि जिसका भी जन्म हुआ है उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है और उस मृत्यु के साक्षात्कार के लिए सभी को प्रस्तुत रहना चाहिए । किंतु हर व्यक्ति इस प्रकार जीवन-व्यापार में खोया रहता है जैसे कि उसे मृत्यु अपना ग्रास नहीं बनाएगी ।
यक्ष ने पूछा – जीवन जीने का सही मार्ग कौन-सा है?
युधिष्ठिर ने कहा –जीवन जीने के असली मार्ग के निर्धारण के लिए कोई सुस्थापित तर्क नहीं है, श्रुतियां (शास्त्रों तथा अन्य स्रोत) भी भांति-भांति की बातें करती हैं, ऐसा कोई ऋषि/चिंतक/विचारक नहीं है जिसके वचन प्रमाण कहे जा सकें । वास्तव में धर्म का मर्म तो गुहा (गुफा) में छिपा है, यानी बहुत गूढ़ है । ऐसे में समाज में प्रतिष्ठित व्यक्ति जिस मार्ग को अपनाता है वही अनुकरणीय है । ‘बड़े’ लोगों के बताये रास्ते पर चलने की बातें अक्सर की जाती हैं । यहां प्रतिष्ठित या बड़े व्यक्ति से मतलब उससे नहीं है जिसने धन-संपदा अर्जित की हो, या जो व्यावसायिक रूप से काफी आगे बढ़ चुका हो, या जो प्रशासनिक अथवा अन्य अधिकारों से संपन्न हो, इत्यादि । प्रतिष्ठित वह है जो चरित्रवान् हो, कर्तव्यों की अवहेलना न करता हो, दूसरों के प्रति संवेदनशील हो, समाज के हितों के प्रति समर्पित हो, आदि-आदि ।
यक्ष ने पूछा – रोचक वार्ता क्या है?
युधिष्ठिर ने कहा – काल (यानी निरंतर प्रवाहशील समय) सूर्य रूपी अग्नि और रात्रि-दिन रूपी इंधन से तपाये जा रहे भवसागर रूपी महा मोहयुक्त कढ़ाई में महीने तथा ऋतुओं के कलछे से उलटते-पलटते हुए जीवधारियों को पका रहा है । यही प्रमुख वार्ता (खबर) है । इस कथन में जीवन के गंभीर दर्शन का उल्लेख दिखता है । रात-दिन तथा मास-ऋतुओं के साथ प्राणीवृंद के जीवन में उथल-पुथल का दौर निरंतर चलता रहता है । प्राणीगण काल के हाथ उसके द्वारा पकाये जा रहे भोजन की भांति हैं, जिन्हें एक न एक दिन काल के गाल में समा जाना है । यही हर दिन का ताजा समाचार है ।
ये वृतांत श्रीमदभागवत महापुराण में महाभारत के वनपर्व भाग से लिया गया है। भारतीय पौराणिक लोक कथाओ को आप यहाँ से पढ़ सकते है।
इसे भी पढ़े –
जीवन और मृत्यु का रहस्य क्या है?
क्या भगवान श्री कृष्ण युद्ध रोक सकते थे?
Comments